कुंभ मेला दुनिया भर में किसी भी धार्मिक प्रयोजन हेतु भक्तों का सबसे बड़ा संग्रहण है। कुंभ का पर्व हर 12 वर्ष के अंतराल पर चारों में से किसी एक पवित्र नदी के तट पर मनाया जाता है- हरिद्वार में गंगा, उज्जैन में शिप्रा, नासिक में गोदावरी और इलाहाबाद में त्रिवेणी संगम जहां गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हैं। हर जगह कुम्भ मेले का आयोजन 12 साल में एक बार होता है।

लेकिन कभी आपने सोचा है कुम्भ मेले के 12 वर्ष में एक बार आयोजित होने के पीछे क्या कारण है…

कुम्भ मेले के हर 12 साल बाद होने बाले आयोजन के पीछे दो मान्यताएं है। जिसमे पहली है ज्योतिष, दूसरी पौराणिक मान्यता।

ज्योतिषीय मान्यता

भचक्र (आकाश मंडल) में स्थित 360 अंश को 12 भागों में बांटकर 12 राशियों की कल्पना की गई है। हर कुंभ के निर्धारित मुहूर्त में गुरु और सूर्य विशेष महत्वपूर्ण होते हैं। गुरु का हर एक राशि पर बास लगभग 13 महीने तक होता है और फिर पुनः उसी राशि पर आने में गुरु को 12 वर्ष का समय लगता है।

 पौराणिक मान्यता

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब पृथ्वी के उत्तर भाग मे हिमालय के समीप देवता और दानवों ने समुद्र का मन्थन किया तो क्षीरसागर से पारिजात, ऐरावत हाथी, उश्चैश्रवा घोड़ा, रम्भा कल्पबृक्ष, शंख, गदा, धनुष, कौस्तुभमणि, चन्द्र मद कामधेनु और अमृत कलश लिए धन्वन्तरि निकलें। इस अमृत कलश को देवता और असुर दोनों ही पाना चाहते थे जिसके फलस्वरूप दोनों के बीच संघर्ष शुरू हो गया।

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जब अंत तक कलह शांत नहीं हुई तब इसे शांत करने के लिए देवताओं और दैत्यों में समझौता हुआ और भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर दैत्यों को भरमाए रखा और अमृत को इस प्रकार बांटा कि दैत्यों की बारी आने तक कलश खाली हो गया और कलश को दैत्यों से से बचाने में जो बारह दिन का समय लगा उसे देवताओं का एक दिन मनुष्य के एक वर्ष के बराबर माना गया।

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