धीमा पड़ चुका कोरोना जिस गति से पैर पसार रहा है। वह आम जनजीवन और सभ्यता के लिए एक बड़े खतरे का सूचक है। देश में कोरोना की दूसरी लहर विकराल रूप लिए हुए है। यह जनता की घोर लापरवाही का नतीजा है या फिर सरकार की नीतियों में कमी। फिलहाल इसकी चपेट में देश हैं और इससे निपटने के लिए कर्फ्यू व लॉकडाउन कमोवेश जारी है। साथ ही चिकित्सीय सुविधा पर भी जोर देखा जा सकता है। लेकिन हालात इस कदर बेकाबू हैं कि सारी कोशिशे मानो बौनी होती जा रही हैं। दुनिया के देशों ने भी दिल खोल कर भारत को मदद पहुंचाई है मगर देश अभी राहत नहीं महसूस कर रहा है। कोरोनावायरस का साइड इफेक्ट आम जनमानस पर भी आसानी से देखा जा सकता है। आंकड़े इशारा करते हैं कि कोरोना ने भारत में करोड़ों लोगों को गरीबी में धकेल दिया है और मध्यम वर्ग की कमर टूट रही है। इसकी दूसरी लहर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पर भी अपना कहर ढा रही है। सथ ही आम जनजीवन को भी हाशिए पर धकेल दिया है। भारत के विकास को लेकर जारी तमाम रेटिंगस् भी अनुमान से नीचे दिखाई दे रहे हैं साफ है की एक और भारत की अर्थव्यवस्था बेपटरी हुई है तो दूसरी ओर आम जनमानस गरीबी और मुफलिसी की ओर गमन किया है। गौरतलब है की करोना को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन से लाखों श्रमिकों को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा है। पाई-पाई का मोहताज होना पड़ा है और खर्च चलाने के लिए कर्ज लेने के लिए मजबूर भी होना पड़ा। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट पर नजर डालें तो पता चलता है कि कोरोनावायरस की सबसे बड़ी मार गरीबों पर पड़ी है। मार्च 2020 से अक्टूबर 2020 के बीच 23 करोड़ गरीब मजदूरों की कमाई न्यूनतम मजदूरी से भी कम देखी गई। रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट कि शहरी इलाकों में गरीबी 20 फीसद जबकि ग्रामीण इलाकों में 15 प्रतिशत तक बढ़ी है। दूसरी लहर के बाद गरीबों की स्थिति जमींदोज होने की आशंका भी है। ध्यानतव्य हो कि 41 करोड़ से अधिक श्रमिक देश में काम करते हैं जिन पर कोरोना का इन दिनों कहर बनकर टूटा है।

अमेरिकी रिसर्च एजेंसी प्यू रिसर्च सेंटर के आंकड़ों पर विश्वास करें तो करोना महामारी के चलते भारत के मध्यम वर्ग खतरे में है। कोरोना काल में आए वित्तीय संकट ने कितनी परेशानी खड़ी की इसका कुछ हिसाब- किताब अब दिखाई देने लगा है। गौरतलब है कि भारत में मिडिल क्लास की पिछले कुछ सालों में बढ़ोतरी हुई थी मगर कोरोना ने करोड़ों को पटरी कर दिया। कोरोना से पहले देश में मध्यम वर्ग की श्रेणी में करीब 10 करोड़ लोग थे अब संख्या घटकर 7 करोड़ से भी कम हो गई है। गौरतलब है कि जिनकी प्रतिदिन आय 50 डालर या उससे अधिक है वे उच्च श्रेणी में आते हैं जबकि प्रतिदिन 10 डालर से 50 डालर तक की कमाई करने वाला मध्यम वर्ग में आता है। खास यह भी है कि चीन की तुलना में भारत के मध्यम वर्ग में अधिक कमी और गरीबी में भी अधिक वृद्धि होने की संभावना देखी जा रही है। साल 2011 से 2019 के बीच करीब 6 करोड़ लोग मध्यम वर्ग की श्रेणी में शामिल हुए थे मगर कोरोना ने एक दशक की इस कूवत को एक दशक में ही आधा रौद दिया। गौरतलब है कि जनवरी 2020 में विश्व बैंक ने भारत और चीन की विकास दर की तुलना की थी जिसमें अनुमान था कि भारत 5.8 फीसद चीन और 5.9 फीसद के स्तर पर रहेगा लेकिन कुछ ही महीने बाद भारत का विकास दर ऋणात्मक स्थिति से साथ भर-भरा गया।कोरोना से बिगड़े आर्थिक हालात को देखते हुए सरकार द्वारा मई 2020 में 20 लाख करोड़ रुपए का आर्थिक पैकेज भी आवंटित किए गए मगर भीषण आर्थिक तबाही का सिलसिला जारी रहा और और मध्यम वर्ग के आर्थिक दुर्दशा के साथ करोड़ों गरीबी में गुजर-बसर के लिए मजबूर हो गये।

गौरतलब है कि काम-धंधे पहले ही बंद हो गए थे, कल कारखानों के ताले अभी खुले नहीं थे कि दूसरी लहर आ गई। गांव से शहर तक रोजी-रोजगार का संकट बरकरार है जाहिर है आर्थिक दुष्चक्र बना रहेगा। पहली लहर में 14 करोड़ लोगों का एक साथ बेरोजगार होना काफी कुछ बयां कर देता है। करोड़ों की तादाद में यदि मध्यमवर्ग सूची से बाहर होता है तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है। मगर एक यक्ष प्रश्न यह है कि कोरोनावायरस इतनी बड़ी तबाही मचा दी और देश लगातार मुसीबतों को झेलता रहा बावजूद इसके इससे निपटने के बेजोड़ नीति अभी अधूरी क्यों ? एक साल से अधिक समय करोना को आए हो गया। अब दूसरी लहर उफान पर है, जबकि तीसरी लहर की संभावना भी व्यक्त की जा चुकी है। यदि लहर पर लहर आती रही और इसका निस्तारण समय रहते ना हुआ तो इसमें कोई शक नहीं कि देश में गरीबों की तादाद बढ़ेगी। भुखमरी और मुफलिसी के आगोश में करोड़ों समाएंगे और विकास के धुरी पर घूमने वाला भारत आर्थिक दुष्चक्र में फंस कर उलझ सकता है। सुशासन एक आर्थिक परिभाषा है, जहां से कई सवाल उठते भी हैं और समाधान भी प्राप्त करते हैं। हालांकि दौर सवाल उठाने का नहीं है लेकिन समाधान की चिंता जाहिर है रहेगी। अभिशासन के सिद्धांत में इस बात पर जोर दिया गया है कि सुशासन तब होता है जब सरकार अपने व्यय में मितव्ययिता बरतती है, अपनी शक्तियों को कम करती है, विनम्र भूमिका निभाती है और लोक सशक्तिकरण की ओर झुकी होती है। मौजूदा हालात में यह समय की मांग भी है। अब सरकार इस मामले में कितनी खरी उतरती है यह उसे सोचना है और साथ ही जनता को भी यह विचार करना है कि आखिर कोरोना के इस भंवरजाल से कैसे बाहर निकले। सादगी और संजीदगी यही कहती है कि समय रहते दोनों को होश में आ जाना चाहिए ताकि सभ्यता,संस्कृति और देश सभी को आसानी से पटरी पर लाया जा सके।

डॉ. सुशील कुमार सिंह
(स्तम्भकार व प्रशासनिक चिन्तक)
निदेशक, वाईएस रिसर्च फाउंडेशन आफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, देहरादून

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