Mukesh prasad bahuguns

सन अस्सी का दशक अभी शुरू ही हो रहा था I

गाँव ,गलियां ,मोहल्ले ,कस्बे ,नुक्कड़ ,चौपाल जीवंत थे I पार्क , बगीचों , खाली मैदान बच्चों की धमाचौकड़ी से खिलखिलाते रहते थे I गाँव के चौपाल ठहाकों से गूंजते थे , पेड़ों पर लड़कियां झूलती थीं , नुक्कड़ पर पान की दुकान –चाय के खोखे चहलपहल से भरे रहते थे I शहर की किसी भी गली में चले जाइए , बाहर चारपाई डाल दस –बीस लोग बतियाते नजर आते थे I आसमान पर रंग बिरंगी पतंगे नृत्य करती थी l कस्बों –शहरों की लाइब्रेरी में लोग पढ़ते दिखाई देते थे I घर –दुकान – खेत –खलिहान में रेडियो बजता रहता था I

जब तक रात की नींद न आ जाए , देश –समाज जागता रहता था ,जिन्दा ,सजीव , साकार ,साक्षात I

तभी टीवी आ गया I अब लोग घरों में सिमटने लग गए I रविवार की शाम की फिल्म और बुधवार को चित्रहार के समय तो ऐसा लगता था ,कि पृथ्वी की गति ही रुक गयी है I ऐसे समय कोई मेहमान –दोस्त घर आ जाये ,तो ख़ुशी की बजाय एक अजीब सा तनाव छा जाता था , मेजबानों के चेहरे पर I नया टीवी तो पिछले महीने ही दिखा दिया इनको , अब ठीक चित्रहार के समय पहुँच जाते हैं I चाय पिलाने की रस्म भी निभानी ही है , पर घर में टीवी छोड़ चाय कौन बनाए ?

धीरे धीरे किसी को पता भी न चला और नुक्कड़ ,मोहल्ले , चाय के खोखे ,पान की दुकान ,बाग़ –बगीचे ,मैदान , चौपाल बदरंग -बेजान से होने लगे I अब लोग पास पड़ौस की बजाय अमेरिका –रूस – दिल्ली को ज्यादा जानने लगे I जिन झगड़ों –विवादों से कोई सम्बन्ध न था , वो अपने सम्बन्धियों के प्रेम से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए I जिन बातों का छोटे बच्चों से कोई सरोकार नहीं , वे बातें बच्चों में चर्चा का विषय हो गयी I बच्चे अचानक ही अपनी उम्र से बड़े –बूढ़े होने लगे I बड़े –बूढ़े बचकानी हरकतें करने लगे I सदियों से चले आ रहे सामाजिक –ताने बाने शिथिल होने लगे ,जोड़ खुलने लगे I कहीं कोई जेल नहीं ,पर लोग घरों में कैद हो गए I

फिर आया इन्टरनेट , स्मार्ट फोन I अब कैदी बड़े हाल की बजाय तन्हाई की कोठरियों में जाने लगे I ऐसी कोठरी ,जहाँ सब कुछ आता है ,सिवा ताजा हवा के I समाज तो बिखर चुका था ,अब परिवार भी बिखरने लगा I पहले अफवाह फैलाने घर से बाहर निकलते थे ,अब घर बैठे अफवाहें फैलने लगी I समाज –घर –परिवार के पैरों में बंधन लगे , अफवाहों के पंख निकल आये I मेले –तमाशे खत्म , लाइब्रेरी पर ताले , चौपाल में सन्नाटा , नुक्कड़ पर ख़ामोशी , मैदान उजाड़ , पेड़ों की डालियों सूनी , बगीचों में चिड़िया बच्चों की आवाज सुनने के लिए तरसती I बाप बेटे के बीच अजीब सी गंभीरता , माँ –बेटी के बीच ख़ामोशी , भाई –बहन के बीच बातें नहीं , सास –बहू ,देवरानी –जेठानी , ननद –भाभी के रिश्तों में अजीब सी ठण्ड I

पहले व्यक्ति था , समाज था , राज्य था I अब व्यक्ति है ,राज्य है , लेकिन व्यक्ति से राज्य के बीच के सारे पुल जर्जर हो गए हैं I संवाद के रास्ते संकरे होते जा रहे हैं I रिश्ते -नाते -संबंध बोझिल रस्म बन रहे हैं l

शायद आदिमानव भी ऐसा ही रहा होगा कभी I हम आधुनिक सुविधा संपन्न आदिमानव बनते जा रहे हैं I

मुकेश प्रसाद बहुगुणा “सागर “

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