लखनऊ/देहरादून: सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव का आज सोमवार को निधन हो गया है। वह पिछले काफी समय से बीमार चल रहे थे। उन्होंने गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में आखिरी सांस ली। यूपी में तीन दिन का राजकीय शोक घोषित कर दिया गया है। वहीं उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने उनके निधन पर शोक जताया। सीएम धामी सहित प्रदेश के अन्य मंत्रियों ने भी उन्हें श्रद्धांजलि दी।

सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव का उत्तराखंड से गहरा नाता रहा है। मुलायम सिंह यादव कभी भी अलग उत्तराखंड राज्य के पक्ष में नहीं थे। उत्तराखंड अलग राज्य की मांग को लेकर लोग सड़कों पर उतरे और इसने एक जनांदोलन का रूप ले लिया।

मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री रहने के दौरान ही रामपुर तिराहा कांड हुआ। और उस काली रात को आंदोलनकारी आज भी नहीं भूले हैं। एक अक्तूबर रात के लगभग दस बजे देहरादून के दर्शनलाल चौक से लगभग दो-ढाई सौ बसों का काफिला निकला। वरिष्ठ राज्य आंदोलनकारी ओमी उनियाल बताते हैं कि किसी को आभास भी नहीं था कि कुछ ही क्षणों में हमारा सामना खौफनाक मंजर से होगा।  रामपुर तिराहा पहुंचते ही गोलियों की आवाज आई। हमारे सामने लाशें गिरीं, खून से लथपथ पड़े लोग, जलती गाड़ियां… हमारी आंखों से बस आंसू बह रहे थे। थोड़ी देर बाद महिलाओं के साथ बदसलूकी की खबरें मिलीं। दिल बैठ सा गया।

दो अक्तूबर की सुबह तक 1994 में राज्य आंदोलनकारियों को मिले जख्म 26 साल बाद भी आज तक नहीं भर पाए हैं। एक अक्तूबर की वह रात दमन, बलप्रयोग और अमानवीयता की हदों को पार करने वाली साबित हुई। यह सबकुछ जिस वजह से हुआ परिणाम भी सियासत को ठीक उलटा ही मिला। राज्य आंदोलन की आग तेज हुई और पहाड़ ने मुझे वोट नहीं दिया कहने वाले नेता रातों-रात खलनायक बन गए।

यह वह दौर था जब उत्तर प्रदेश का यह पहाड़ी हिस्सा मंडल के झंझावत से निकला ही था। कोदा-झंगोरा खाएंगे, अपना उत्तराखंड बनाएंगे के नारे हवा में तैरा करते थे। हर कोई किसी न किसी रूप में राज्य आंदोलन से जुड़ा हुआ था। पहाड़ उस समय दो चीजों के लिए जना जाता था- पनिशमेंट पोस्टिंग या फिर फौज।

राज्य आंदोलन संघर्ष समिति का जन्म हो चुका था और इसी के आह्वान पर दो अक्तूबर को दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करना तय किया गया था। राज्य आंदोलन के कई नेता पहले ही दिल्ली पहुंच चुके थे। यही आह्वान और आंदोलन की भावना का सबब था कि गढ़वाल और कुमाऊं से बसों में भरकर लोग एक अक्तूबर को दिल्ली के लिए रवाना हुए।

उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी और यह तय कर लिया गया था कि आंदोलनकारियों को आगे नहीं जाने देना है। पहले नारसन बार्डर पर नाकाबंदी हुई। यहां पर आंदोलनकारियों के आगे प्रशासन बेबस हो गया। सैकड़ों बसों का काफिला आगे बढ़ा तो राज्य आंदोलनकारियों का सामना रामपुर तिराहे पर पूरी तैयारी के साथ मौजूद पुलिस प्रशासन से हुआ।

कुछ आंदोलन की तपिश और कुछ भारी संख्या में जुटे लोगों की मौजूदगी का सबब था कि सत्ता का दमनात्मक रूप खुलकर सामने आ गया। उसके बाद जो हुआ, उसे कई बार दोहराया जा चुका है। पुलिस की फायरिंग, बेबसों पर कहर, बलात्कार जैसी घटनाओं से रात और काली हो गई। यह सब कुछ रात भर चलता रहा।

इस अमानवीयता के बीच कुछ और भी हुआ, जिससे मानवीयता को थोड़ी सांस लेने का मौका दिया। स्थानीय लोग घायलों की मदद करने, शरण देने के लिए आगे आए। राज्य आंदोलनकारियों को जख्म देने वाले मिले तो उनके जख्मों पर मरहम लगाने वाले भी।

यही रामपुर तिराहा है जिससे सियासत का रुख भी मोड़ दिया। मुलायम सिंह खलनायक बन गए। उनकी पार्टी पहाड़ में पैर जमा ही नहीं पाई। राज्य आंदोलन की आग और तेज हुई। आंदोलन में खटीमा और मसूरी के बाद रामपुर तिराहे का नाम भी जुड़ गया। बाद का समय गवाह है कि 1994 का यह साल इसके बाद भी शांत नहीं रहा। इसकी गूंज श्री यंत्र टापू तक में सुनाई दी। नौ नवंबर 2000 को राज्य का गठन हुआ लेकिन राज्य आंदोलन का यह जख्म अभी तक भरा नहीं है।

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