चुनाव लोकतंत्र का आधार हैं । चाहे वह लोकसभा हो , विधान सभा हो , नगर निकाय हों या पंचायत चुनाव , किसी भी बूथ पर सकुशल चुनाव सम्पन्न कराने की जिम्मेदारी जिस व्यक्ति पर होती है , उसे पीठासीन अधिकारी कहते हैं । जब चुनाव होते हैं ‌तो‌ लाखों सरकारी कर्मचारी इस ड्यूटी में तैनात होते हैं ‌। स्वर्गीय पिताजी ‌प्रत्येक चुनाव में इसी पद नियुक्त होते । जब चुनावों ‌का मौसम आता तो तो हम सब भाजपा अच्छी या कांग्रेस , सपा सरकार बनायेगी ‌कि बसपा इस चर्चा में मग्न होते । इसी बीच पिताजी मुॅंह से केवल एक वाक्य निकालते कि ” चुनाव ड्यूटी लग गई ‌है ।” उस पर कोई ध्यान नहीं देता । जिस दिन चुनाव होते उस दिन कोई यह न सोचता कि पिताजी कितना संघर्ष झेल रहे हैं । देर रात गए पिताजी जब घर लौटते तो उस समय तक सब लोग बीजेपी , कांग्रेस की चर्चा करके सो चुके ‌होते‌ । अगली सुबह उठने पर कमरे में पिताजी के अन्य सामानों ‌के साथ एक बैज मिलता जिस ‌पर लिखा होता था ” पीठासीन अधिकारी ।” हमें ‌लगता कि हमारे पिताजी तो चुनाव अधिकारी ‌थे , खूब दावत ‌उड़ाकर आ रहे‌ होंगे ‌। लेकिन इस संपूर्ण चुनाव प्रक्रिया में पिताजी कितना पसीना बहाकर आ रहे हैं इसका रत्ती भर भी भान नहीं ‌होता । इस पाप का फल मिलना ही था । दिसंबर 2006 में लोक सेवा आयोग उत्तरांचल से प्रवक्ता हिंदी के पद पर चयनित होकर राजकीय इंटरमीडिएट काॅलेज भरोलीखाल , पौड़ी गढ़वाल में प्रवक्ता हिंदी के पद पर कार्यभार ग्रहण किया । अभी नौकरी को दो महीने में भी व्यतीत नहीं हुए थे कि विधानसभा चुनाव में पीठासीन अधिकारी के पद पर ड्यूटी लग गई ।

अब तक कभी वोट डालने का भी अनुभव नहीं था लेकिन अब पीठासीन अधिकारी के रूप में बूथ पर चुनाव संपन्न कराना था । पता चला कि अमुक तारीख को प्रशिक्षण होगा जिसके लिए जिला मुख्यालय पौड़ी जाना होगा । विद्यालय से जिला मुख्यालय की दूरी लगभग सवा सौ किलोमीटर की थी । जिस दिन प्रशिक्षण होना था उससे ‌दो‌ तीन दिन पूर्व मौसम भयंकर रूप से खराब हुआ । पहले घनघोर ठंड बढ़ी , उसके बाद मूसलाधार बारिश शुरू हुई और फिर बर्फ पड़ने लगी । रुई के फाहों की तरह गिरती हुई बर्फ ने ठंड को भयंकर रूप से बढ़ा दिया था ।ऐसे खराब मौसम में नियत तारीख को खूब भोर में बुक की हुई टैक्सी से समस्त विद्यालयीय स्टाफ प्रशिक्षण लेने‌ के लिए जिला मुख्यालय पौड़ी की ओर चल पड़ा ।‌ हाड़ कॅंपा देने वाली ठंड में बर्फीली हवा चल रही थी । सड़क के‌ दोनों ओर बर्फ पड़ी हुई थी । इस भयावह ठंड में पड़ी हुई बर्फ के बीच गाड़ी सर्पिलाकार पर्वतीय मार्ग पर जिला मुख्यालय पौड़ी की ओर बढ़ रही थी । सारा पहाड़ बर्फीला रेगिस्तान बना हुआ था । होते हवाते हम प्रशिक्षण के लिए जिला मुख्यालय पर पहुंच गए । मौसम खराब था । धूप का कहीं नामोनिशान नहीं । हम काॅंपते कूॅंपते प्रशिक्षण हाल में जा पहुंचे । उन‌ दिनों ‌प्रोजेक्टर लगाकर प्रशिक्षण नहीं दिया जाता था । उस भयानक ठंड में जो बातें बताई गईं वे सिर के ऊपर से गुजर गईं । वह तो अच्छा हुआ कि प्रशिक्षण के बाद हमको पीठासीन अधिकारी की हस्तपुस्तिका पकड़ा दी गई । उस हस्तपुस्तिका ने चुनाव ड्यूटी निष्पादन में हमारी बहुत मदद की । प्रशिक्षण के बाद जब हम जब हाल से बाहर निकले तो ओलों की बारिश हमारा स्वागत कर रही थी । बड़े बड़े नमक के ढेलों ‌के बराबर ओले बरस रहे थे । सारे पौड़ी की सड़कों पर ओले ही ओले पड़े हुए थे । नमक के ढेलों ‌के बराबर ओलों का देखना एक अलग ही तरह का अनुभव था । पेट में भूख लगी हुई थी । आसपास के होटलों में पूछा तो वे सभी मांसाहारी होटल थे और मैं विशुद्ध शाकाहारी ब्राह्मण । अब दुर्गति तो होनी ही थी । बाकी साथी तो भोजन के लिए एक होटल में चले गए । मैंने उसी ठंड में पास ही बिक रहे केले खरीदे और उन्हें खाकर अपनी क्षुधा शांत की । उस भयंकर ठंड में केले‌ का स्वाद आजतक याद है । बाद में एक साथी ने फटकारा कि पहाड़ में इतने विशुद्ध पंडित बनोगे तो भूखों मरोगे । होटल भले ही मांसाहारी हैं लेकिन यदि आप उनसे शाकाहारी भोजन मांगेंगे तो वे आपको शाकाहारी भोजन दे‌ देंगे । अब वे एक ही कलछी से दाल फ्राई भी देते हैं और उसी से चिकन फ्राई भी , इतना तो बर्दाश्त करना ही पड़ेगा । साथी की बात मैंने गांठ बांध ली । प्रशिक्षण के‌ बाद हम अपने विद्यालय वापस आ गए ।

चुनाव की तिथि धीरे धीरे करीब आ रही थी । आखिर वह तिथि आ ही गई जब हमें अपने कर्तव्य निर्वहन हेतु प्रस्थान करना था । पता चला कि चुनाव सामग्री कोटद्वार शहर से मिलेगी और वहीं टीम के बाकी साथियों से भी मुलाकात होगी । हम विद्यालय से 150 किलोमीटर दूर स्थित कोटद्वार शहर के लिए चल पड़े । वहाॅं पहुॅंचने पर टीम के बाकी साथी भी मिल गये । जो प्रथम मतदान अधिकारी थे वे लोक निर्माण विभाग के अवर अभियंता थे । उनकी भी प्रथम चुनाव ड्यूटी थी । वे यह सोचकर आ रहे थे कि पीठासीन अधिकारी अनुभवी होंगे इधर मैं ‌सोच कर जा रहा था कि प्रथम मतदान अधिकारी अनुभवी होगा । बाद में पता चला कि दोनों एक ही ‌जैसे हैं । द्वितीय और तृतीय मतदान अधिकारी ने बताया कि उन्हें प्रशिक्षण पर भी नहीं बुलाया जाता । खैर कुछ भी हो सामान प्राप्त करने के बाद हमारी आपस में ऐसी सहयोग ‌की भावना बनी कि काम धीरे धीरे आसान ‌होने‌ लगा । सर्वप्रथम हमने चुनाव सामग्री प्राप्त की । उसके बाद बाहर रखी हुई ई वी एम मसीनों को चलाना सीखा । तब तक शाम हो गई थी और कोटद्वार शहर के सभी होटल बुक हो चुके थे । अब प्रश्न उठा कि अब कहाॅं जाएं‌। किसी ने बताया कि यदि हम जी आई सी कोटद्वार ‌चले जायें तो वहां सोने की जगह मिल सकती है । हम वहां गए और बच्चों के बैठने के‌ लिए जो स्टूल होते हैं उन्हें आपस में जोड़कर सोने की व्यवस्था की । हमारे तमाम साथी ऐसी ही व्यवस्था बनाकर वहाॅं रुके हुए ‌थे । किसी तरह रात बीती । अगले दिन ई वी एम आदि लेकर अपने बूथ के लिए बस में बैठकर चल पड़े । मेरी ड्यूटी यमकेश्वर विधान सभा के प्राथमिक विद्यालय ताल में थी । बस में बैठते समय हमें बता दिया गया कि जहाॅं हमारा बूथ है वहाॅं न तो बिजली है और न ही मोबाइल टावर । हमनें दो तीन दिन के लिए स्वयं को देश दुनिया से काटने के लिए तैयार कर लिया । बस कोटद्वार से नजीबाबाद और उसके बाद हरिद्वार पहुंच गई । हरिद्वार में गंगा की निर्मल धारा और नील पर्वत पर मनसा देवी का मंदिर दिखाई पड़ा । हमने सिर झुकाकर गंगा मैया और मनसा माता को प्रणाम किया । बस वहाॅं से चीला वन्य प्राणी अभ्यारण्य ‌की ओर बढ़ चली । धीरे धीरे बस्ती छूटने लगी और भयावह जंगल पड़ने लगा । एक एक करके बस की बाकी टीमें उतर गईं । हमारा पोलिंग स्टेशन अंतिम था । चार लोगों की चुनावी टीम , दो पुलिस कर्मचारी , और बस के ड्राइवर कंडक्टर के साथ शाम ढलते ढलते मैं पोलिंग स्टेशन पर पहुॅंच चुका था । चारों ओर भयावह जंगल था ।‌दूर दूर तक कहीं किसी आदमी का नामोनिशान नहीं था । न बिजली , न मोबाइल । हम दूसरी दुनिया में पहुंच चुके थे । वह तो अच्छा था कि प्रशासन ने खाना बनाने वाले का इंतजाम कर रखा था अन्यथा हमारा भूखों मरना तय था ।

जिस तरह किसी भुतही फिल्म में डरे हुए जंगल में फॅंसे‌ लोगों के सामने हवेली का बूढ़ा चौकीदार लालटेन लिए हुए डरे हुए मुसाफिरों के सामने उपस्थित होता है ,‌वैसा ही एक व्यक्ति हमारे सामने आया । पता चला कि वे उस प्राथमिक विद्यालय के अध्यापक थे और अपना सारा जीवन उन्होंने ऐसे ही जंगल में अध्यापन करते हुए गुजार दिया । उनकी कहानी सुनकर उनके चरणो में दंडवत करते हुए झुक जाने की इच्छा हुई परन्तु किसी तरह से अपने आप को नियंत्रित किया । आज भारत में तमाम ऐसे अध्यापक इन दुर्गम स्थानों में जहां पर शिक्षा का अन्य कोई विकल्प नहीं होता , अपने जीवन की आहुति देकर शिक्षा की ज्योति जला रहे हैं । हाॅं इनका उल्लेख कहीं नहीं होता । विद्यालय के चारों ओर भयानक जंगल था । हाथी , बाघ , गीदड़ , साॅंप से लेकर ऐसा कोई जानवर बाकी नहीं था जो उस जंगल में नहीं था । जरा सी देर को आगे जाने पर तरह तरह के जानवरों की भयंकर आवाजें सुनाई पड़ती थीं । न बिजली , न मोबाइल , न ही रेडियो , टी वी या अखबार । उस निर्जन स्थान मैं और मेरी टीम लोकतंत्र बचाने पहुॅंच चुकी थी ।

किसी तरह जमीन पर सोकर हमने रात गुजारी ‌। अगले दिन ‌हमने‌ कागज‌ लिफाफे आदि भरे । भयानक जंगल में कमरे‌ से‌ बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हुई क्योंकि बाहर बंदरों की टोली हुड़दंग मचाने में लगी हुई थी । स्कूल की छत टीन की थी । अतः बंदर उस पर धड़ाम धड़ाम कूद रहे थे । बंदरों की धमाचौकड़ी के बीच हमने लिफाफे भरने का काम पूरा किया । बाकी समय सभी टीम के सदस्य अपनी अपनी कहानी सुनाते रहे । हमलोग बाकी दुनिया से पूरी तरह कटे हुए थे । अतः टीम के सदस्यों , पुलिस के जवानों , एवं ड्राइवर कंडक्टर के साथ गहरी दोस्ती हो गई थी । खाना बनाने वाला एक सहायक के साथ कहीं दूर से आता और खाना बनाकर खिला जाता था ।

अगले दिन चुनाव था । हम तड़के उठ गए और मसीन आदि की नियत समय पर सेटिंग कर दी । तब तक दो व्यक्ति एजेंट बनने के लिए भी पहुंच गए । दोनों सगे भाई थे । उनसे बोल दिया गया था कि जाकर एजेंट बन जाना सो वे एजेंट बनने के लिए आ गए । एक बी जे पी का एजेंट था और दूसरा कांग्रेस का लेकिन ‌वहाॅं बी जे पी कांग्रेस जैसी कोई बात नहीं थी । हमने ‌उन दोनों एजेंटों और खाना बनाने वालों से वोटिंग करवाकर मतदान ‌कार्य का शुभारंभ किया । उन दोनों एजेंटों के आ जाने से हमारे परिवार में दो और व्यक्तियों की वृद्धि हो गई थी । उस मतदान केंद्र पर बेहद कम मतदाता थे । मुझे याद है कि कुल 115 मतदाताओं में मात्र 45 मतदाताओं ने अपने मत का प्रयोग किया था । अतः हम दिन भर उन‌ दोनों‌ एजेंटों से जंगल की कहानियाॅं सुनते रहे । शाम के पाॅंच बजे मशीन बंद की और बाकी औपचारिकताएं , लिफाफे आदि सील करने में लग गए । हमको रात्रि विश्राम पोलिंग स्टेशन पर ही करना था और अगले‌ दिन प्रातः जिला मुख्यालय पौड़ी के‌ लिए रवाना होना था । अतः भोजन करने के बाद हम वहीं जमीन पर सोकर काफी देर तक अपनी अपनी कहानी सुनाते रहे ।

अगले दिन प्रातः उठकर हम जिला मुख्यालय पौड़ी के लिए चल पड़े । धीरे धीरे जैसे बस चीला वन्य प्राणी अभ्यारण्य से निकलती हुई ऋषिकेश की ओर बढ़ने‌ लगी ऐसा लगा कि जैसे हम मंगल ग्रह से पृथ्वी की ओर बढ़ रहे हैं । फिर बस ऋषिकेश पहुंची और गंगा पर बना रामझूला दिखाई पड़ा । हमने गंगा को प्रणाम किया । वहाॅं से बस गंगा के किनारे होती हुई ‌देवप्रयाग की ओर बढ़ने लगी । हिमालय में गंगा की अविरल ‌धारा को‌ देखने का यह प्रथम अनुभव था । गंगा की अविरल धारा को देखते ही बहुत कुछ थकान गायब हो गई और लगा कि गढ़वाल में नौकरी लगना सार्थक हुआ । बयासी में भोजन के उपरांत बस देवप्रयाग पहुंची । वहाॅं अलकनंदा और भागीरथी के संगम को देखते ही मन आह्लाद से भर गया । अद्भुत दृश्य था अलकनंदा और भागीरथी के संगम का । अब तक इसके बारे में केवल किताबों में पढ़ा था । अब साक्षात ऑंखों से देखने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा था । देवप्रयाग से आगे बढ़ते ही बर्फ से लदी , श्वेत , धवल हिमालय के शिखर दिखाई पड़े । उनको देखते ही चुनाव कार्य भूल गया और मन कवित्वमय हो गया । रामधारी सिंह दिनकर याद आ गए ः

मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरुष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

लेकिन यह कवित्वमय स्थिति ज्यादा देर तक नहीं बची क्योंकि ‌बस पौड़ी पहुंच चुकी थी और वहाॅं खाल उधेड़ने के लिए ‌निष्ठुर प्रशासन और बाबू वर्ग मौजूद था । जब मैं कार्यमुक्त हुआ तो रात के नौ बज चुके थे । चुनाव कार्य में प्रशासन और बाबू वर्ग चुनाव कर्मियों को एक इंसान के रूप में नहीं बल्कि एक मशीन के रूप में देखता है । कोई चुनाव कर्मी जिए , मरे इस चीज़ से‌ उनको कोई मतलब नहीं होता । अगर प्रशासन की निष्ठुरता से परिचित होना है तो मतदान कार्य की समाप्ति के उपरांत सामान जमा करते समय देखिए । नानी याद आ जाती है ।

सामान जमा करने के बाद जब मैं बाहर निकला तो रात के नौ बज रहे थे । सभी साथी विदा हो चुके थे। कार्यमुक्त होने के बाद लोग आपको ऐसे छोड़कर भागते हैं जैसे आपके भीतर कोई छूत की बीमारी लगी हुई हो । जिस जिस रूट की ओर बसें जा रही थीं ‌लोग उसमें सवार होकर अपने अपने गंतव्य की ओर भाग रहे थे । मुझे जिस रूट पर जाना था उधर जाने के लिए कोई बस नहीं थीं । पास ही कई बसें खड़ी थीं । ड्राइवर से पता किया तो मुझे जिधर जाना था उधर रात के तीन बजे बस जाएगी । चाय, पानी , भोजन सभी की दुकानें बंद हो चुकी थीं । मेरे लिए नया राज्य , नया शहर था । ॑ जाऊॅं बता कहाॅं ऐ दिल , दुनिया बड़ी है संगदिल ॑ वाली हालत थी । नई नौकरी , नया राज्य , नया जिला , नई जगह और मोबाइल स्विच ऑफ , कोई परिचित नहीं । पास ही में एक खाली दुकान पड़ी थी । उसमें ठंड के कारण कुछ कुत्ते सिकुड़े हुए सो रहे थे । उन्हीं कुत्तों के बगल में जमीन पर मैंने भी अपना बिस्तर लगाया । रौशनी के लिए चंद्रमा की चाॅंदनी और टार्च की रौशनी थी । रात बीतने लगी पर ऑंखों से नींद गायब थी । कुछ देर युंही लेटने के बाद हल्की सी झपकी आई । सुबह ढाई बजे के लगभग बसवाले के रामनगर , बैजरो की आवाज़ सुनकर नींद खुली । चटपट उठकर बिस्तर बाॅंधा । कुत्ते उसी तरह सो रहे थे । कुत्तों के साथ बिताई गयी रात आज भी याद रहती है । कुत्तों को उसी हालत में छोड़कर मैं बस में चढ़ गया । बस नीचे बाजार में आकर लग गई । वहॉं बहुत से चुनाव ड्यूटी में लगे साथी बस की प्रतीक्षा कर रहे थे ‌। देखते ही देखते बस भर गई । भीषण ठंड थी । अन्य साथियों के बस में सवार होने से बस में गर्माहट बढ़ी । कुछ पल के उपरांत ‌बस रात्रि के सन्नाटे को चीरती हुई आगे बढ़ चली । सड़क के किनारे पहाड़ों पर जमी बर्फ अभी पिघली नहीं थी । अतः भयंकर ‌बर्फीली हवा चल रही थी । ठंड बढ़ी हुई थी । ऐसे में हल्की सी झपकी आई । जब ऑंख खुली तो देखा रात के अंधेरे में ‌ही बस एक चाय की दुकान पर रुकी हुई थी । सभी यात्री चाय पीने के लिए नीचे उतर रहे थे । दुकानदार चाय बना रहा था । मैंने भी चाय आर्डर कर दिया ।

आह ! चाय की पहली घूॅंट उस ठंड में अमृत के समान प्रतीत हुई । वह स्वाद आज तक नहीं भूलता । दो गिलास चाय पीकर बस में अपनी सीट पर बैठ गया । बर्फीली हवा के बीच सर्पिलाकार मार्ग पर बस आगे बढ़ चली । सड़क के‌ दोनों ओर पहाड़ पर पड़ी बर्फ अभी पिघली नहीं थी । अतः हाड़ कॅंपा देने वाली ठंड पड़ रही थी । प्रशासन ने जे सी बी से बीच सड़क पर पड़ी बर्फ हटा दी थी । अतः वाहनों का आवागमन शुरू हो गया था परन्तु सड़क के‌ दोनों ओर बर्फ दिख रही थी और इसी में सन्नाटे को चीरती हुई हमारी बस आगे बढ़ रही थी । सुबह के आठ नौ बजे तक बस बैजरो कस्बे में पहुॅंच गई थी । वहां से लगभग पच्चीस किलोमीटर आगे मेरा कमरा था । संयोग से विद्यालय के प्रधानाचार्य जी मिल गए । उनके साथ लगभग ग्यारह बारह बजे के करीब मैं अपने कमरे पर पहुंच चुका था । आज एक सप्ताह के बाद मैं अपने कमरे पर पहुंच रहा था । जैसे कोई फ़ौजी जंग लड़ने के बाद अपने बैरक में वापस आता है , वैसी ही अनुभूति हो रही थी । लगभग एक सप्ताह के पश्चात स्नान करने का अवसर प्राप्त हुआ और ढंग का भोजन मिला । भोजन समाप्त करके आराम से रजाई ओढ़कर सो गया ।
तब से लेकर आजतक पीठासीन अधिकारी के रूप में उत्तराखंड में तमाम पहाड़ जंगलों की खाक छानते हुए की चुनाव संपन्न कराये । जब जब चुनाव आते हैं तो चाहे असम और गिर के जंगल हों या उत्तराखंड और हिमाचल के दुर्गम पर्वतीय इलाके , चाहे राजस्थान का रेगिस्तान हो या उत्तर प्रदेश और बिहार के मैदानी इलाके , जब लाखों कर्मचारी अपनी आहुति देते हैं तो ये चुनाव संपन्न होते हैं । मीडिया , बुद्धिजीवी , नेता , समाज सबके पास राजनीति पर चर्चा करने के लिए खूब वक्त होता है लेकिन अपने खून पसीने से लोकतंत्र के वटवृक्ष को सींचते इन कर्मचारियों के लिए एक शब्द भी नहीं होता ।

अविनाश चंद्र
प्रवक्ता , हिंदी
राजकीय इंटरमीडिएट काॅलेज बिलखेत
पौड़ी गढ़वाल , उत्तराखंड ।

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