आदि काल से चिट्ठी-पत्री की अपनी एक अलग परम्परा रही है। जब डाक विभाग की सुविधा नहीं थी आदमी व कबूतर ही पत्र वाहक होते थे। घुघुति, हिलांस, कफू के सन्देश प्रेषण की कपोल कल्पना से हमारा लोक साहित्य पटा पड़ा है। आग का भभराना, पैरों में पराज लगना, बाडुली आना,, हाथ से बर्तन गिरना, कौवा बासना भी सन्देश का प्रतीक था।

चिट्ठी का प्रचलन हुआ और नये-नये आयाम के साथ चिट्ठी प्रतिस्थापित हुई है। पहले तो पत्र को अपने गंतव्य तक पहुंचने में कई दिन और महीने लग जाते थे। बहुत ही बेसब्री से प्रतीक्षा होती थी अपने ईष्ट मित्रों की कुशलक्षेम की। पत्र और आत्मा का बहुत ही नैसर्गिक मिलन होता था। वे पत्र चाहे पुत्र का सुदूर प्रदेश से अपने माता-पिता को हो, बहिन- भाई को हो, प्रेमी-प्रेमिका को हो, पति पत्नी के बीच हो, ईष्ट मित्रों को हो, साहित्यकारों एवं पाठकों के हों। सभी पत्र आत्मीयता से परिसिंचित होते थे। इनका वर्णन करना असम्भव है। लोग इन पत्रों को बहुत ही शिद्दत के साथ संजो कर रखते थे। अब यह परम्परा स्मृति के झरोखों में सिमट कर रह गई है। इसे सोशल मीडिया ने निगल लिया है। नई-पुरानी पीढ़ी मोबाइल, इंटरनेट के ग्रास हो गई है।

पिछले पैंतीस वर्षों के कालखण्ड में साहित्य मित्रों से प्राप्त पत्रों को संग्रहित कर साहित्यकार शूरवीर रावत ने पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है- “खट्टी मिठ्ठी – तुमारि चिट्ठी”.

पुस्तक में पत्रप्रेषकों के पत्र के साथ उनका संक्षिप्त परिचय दिया गया है, जिससेे पुस्तक का महत्व और भी बढ़ गया है। दो शब्द के अन्तर्गत रावत जी ने लिखा है कि “सोशल मीडिया के कारण आज रिश्ते खो गये। मैसेज में वह आत्मीयता नहीं होती है, जैसे पहले संबोधित शब्दों में हुआ करते थे।”

पूज्य, पूज्या, पूजनीय, आदरणीय, परमादरणीय, प्रिय, प्रियवर, मित्रवर, अग्रज,अनुज, चरणस्पर्श, स्नेहिल,आपकी जीवनसंगिनी, जीवनसाथी आदि विभिन्न शब्द विस्मृत हो चुके हैं। ये शब्द आत्मा से प्रस्फुटित होते थे। अपनों के पत्र पढ़कर लोगों की आंखें सजल हो जाती थी। अपनों की चिट्ठी कई कई बार पढ़कर भी लोग अघाते नहीं थे। नई पीढ़ी तो शायद ही पत्र लिखे। उसे जानना भी वे बेमानी समझते हैं। अब हमारी वाली पीढ़ी सोशल मीडिया से बेमन जुड़ने की चेष्टा करती है। लिफाफे, अन्तर्देशीय, पोस्ट कार्ड और डाकिया भूली बिसरी बातें हो गई हैं।

शूरवीर रावत जी ने निग्रह की नहीं संग्रह की परिपाटी को आत्मसात कर एक नई सोच और नई पहल और नई विधा को जन्म देने की चेष्टा की है, जो निःसंदेह प्रशंसा योग्य है। इस पुस्तक से जहां रावत जी के साहित्य संसार में श्रीवृद्धि हुई है, वहीं मेरे जैसे साहित्यिक मित्रों, पाठकों का परोक्ष रूप से फायदा हुआ है। उन्हें पुस्तक में पर्याप्त स्थान मिला है। इसके लेखक और पत्र सम्प्रेषकों को दूरगामी परिणाम देखने को मिलेंगे, ऐसा मुझे विश्वास ही नहीं अपितु पूर्ण आशा भी है।

पुस्तक बेमिसाल है। इसे पुस्तक नहीं, चिठ्ठियों का अभिलेखीय दस्तावेज कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह पुस्तक पाठकों विशेषकर नई पीढ़ी के लिए उपयोगी सिद्ध होगी। इस पुस्तक से लोग अपने अतीत में झांकने का प्रयास करेंगे, ऐसा मेरा मानना है। पुस्तक नये आयाम के साथ नये मुकाम हासिल करेगी, मेरी शुभकामनाएं हैं।

अन्तत: रावत जी को नव पुस्तक प्रकाशन की अनेकानेक बधाई एवं शुभकामनाएं कि उनकी साहित्यिक यात्रा यूं ही गतिमान बनकर साहित्य संसार में ध्रुवतारा के समान चमकें।
समीक्षक: डॉ सत्यानंद बडोनी

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