उनको सुबह तड़के साढ़े चार बजे बेड टी दी जाती है। उन्हें 9 बजे नाश्ता और शाम सात बजे रात का खाना भी मिलता है।
चौबीस घंटे उनकी सेवा में भारतीय सेना के पाँच जवान लगे रहते हैं। उनका बिस्तर लगाया जाता है, उनके जूतों की बाक़ायदा पॉलिश होती है और यूनिफ़ॉर्म भी प्रेस की जाती है। लेकिन आपको ये जानकर अजीब लगेगा कि वे इस दुनिया में नहीं हैं।

आज हम आपको भारतीय सेना के एक ऐसे जवान की कहानी बता रहे हैं, जिसे शहादत के कई सालों बाद भी प्रमोशन और छुट्टियां मिलती हैं। देश के इस लाडले बेटे की वीरता की कहानी सुनकर एक हिन्दुस्तानी होने के नाते आपका सीना भी गर्व से चौड़ा जाएगा।

वीर जसवंत सिंह…

वीर जसवंत सिंह रावत का जन्म 19 अगस्त 1941 को उत्तराखंड के ग्राम-बाड्यूं ,पट्टी-खाटली,ब्लाक-बीरोखाल, जिला-पौड़ी गढ़वाल में हुआ था। आपको बता दें कि जिस समय जसवंत सिंह सेना में भर्ती होने गए थे उस समय उनकी उम्र महज 17 साल थी। जिस कारण उन्हें सेना में भर्ती होने से रोक दिया गया था। इसके बाद फिर उनकी उम्र होने पर ही उन्हें सेना में भर्ती किया गया। वह 1962 की लड़ाई में चीनी सेना के खिलाफ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए थे।

राइफ़ल मैन जसवंत सिंह भारतीय सेना के सिपाही…

राइफ़ल मैन जसवंत सिंह भारतीय सेना के सिपाही थे, जो 1962 में नूरारंग की लड़ाई में असाधारण वीरता दिखाते हुए मारे गए थे। उन्हें उनकी बहादुरी के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था। सेला टॉप के पास की सड़क के मोड़ पर वह अपनी लाइट मशीन गन के साथ तैनात थे। चीनियों ने उनकी चौकी पर बार-बार हमले किए लेकिन उन्होंने पीछे हटना क़बूल नहीं किया।

चीनी मीडियम मशीन को खींचते हुए वह भारतीय चौकी पर ले आए…

जसवंत सिंह और उनके साथी लांसनायक त्रिलोक सिंह नेगी और गोपाल सिंह गोसांई ने एक बंकर से क़हर बरपा रही चीनी मीडियम मशीन गन को शांत करने का फ़ैसला किया।
बंकर के पास पहुँच कर उन्होंने उसके अंदर ग्रेनेड फेंका और बाहर निकल रहे चीनी सैनिकों पर संगीनों से हमला बोल दिया। चीनी मीडियम मशीन को खींचते हुए वह भारतीय चौकी पर ले आए और फिर उन्होंने उसका मुँह चीनियों का तरफ़ मोड़ कर उन्होंनें उनको तहस-नहस कर दिया।

72 घंटों तक लगभग अकेले मुक़ाबला…

मैदान छोड़ने के बाद चीनियों ने उनकी चौकी पर दोबारा हमला किया। 72 घंटों तक लगभग अकेले मुक़ाबला करते हुए जसवंत सिंह मारे गए। कहा जाता है जब उनको लगा कि चीनी उन्हें बंदी बना लेंगे तो उन्होंने अंतिम बची गोली से अपने आप को निशाना बना लिया।

10000 फीट की ऊंचाई पर मोर्चा संभाले….

उनके बारे में एक और कहानी प्रचलित है। पीछे हटने के आदेश के बावजूद वह 10000 फीट की ऊंचाई पर मोर्चा संभाले रहे।वहाँ उनकी मदद दो स्थानीय बालाओं सेला और नूरा ने की।लेकिन उनको राशन पहुँचाने वाले एक व्यक्ति ने चीनियों से मुख़बरी कर दी कि चौकी पर वह अकेले भारतीय सैनिक बचे हैं। यह सुनते ही चीनियों ने वहाँ हमला बोला।
चीनी कमांडर इतना नाराज़ था कि उसने जसवंत सिंह का सिर धड़ से अलग कर दिया और उनके सिर को चीन ले गया। लेकिन वह उनकी बहादुरी से इतना प्रभावित हुआ कि लड़ाई ख़त्म हो जाने के बाद उसने जसवंत सिंह की प्रतिमा बनवाकर भारतीय सैनिकों को भेंट की जो आज भी उनके स्मारक में लगी हुई है।

जसवंत सिंह की याद में मंदिर…

जिस स्थान पर उन्होंने मोर्चा संभाला था वहाँ पर उनकी याद में एक मंदिर बनाया गया है। जहाँ पर उनके इस्तेमाल की जाने वाली अधिकतर चीज़ें रखी गई हैं। इस रास्ते से गुज़रने वाला चाहे जनरल हो या जवान, उन्हें श्रद्धांजलि दिए बिना आगे नहीं बढ़ता। जसवंत सिंह के मारे जाने के बाद भी उनके नाम के आगे स्वर्गीय नहीं लगाया जाता। वह भारतीय सेना के अकेले सैनिक हैं जिन्हें मौत के बाद प्रमोशन मिलना शुरू हुए। पहले नायक फिर कैप्टन और अब वह मेजर जनरल के पद पर पहुँच चुके हैं।

उनकी तरफ़ से छुट्टी की दर्खास्त…

उनके परिवार वाले जब ज़रूरत होती है, उनकी तरफ़ से छुट्टी की दर्खास्त देते हैं। जब छुट्टी मंज़ूर हो जाती है तो सेना के जवान उनके चित्र को पूरे सैनिक सम्मान के साथ उनके उत्तराखंड के पुश्तैनी गाँव ले जाते हैं और जब उनकी छुट्टी समाप्त हो जाती है तो उस चित्र को सम्मान वापस उसके असली स्थान पर ले जाया जाता है।

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